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कविता श्रृंखला: अनकहे एहसास: दिल की बात

कविता श्रृंखला: अनकहे एहसास: दिल की बात 


मैं दिया हूँ! 

मेरी दुश्मनी तो सिर्फ अँधेरे से है, हवा तो बेवजह ही मेरे खिलाफ है।
– गुलज़ार

कविता: मैं दिया हूँ
~ आनंद किशोर मेहता

मैं दिया हूँ...
मुझे बस अंधेरे से शिकायत है,
हवा से नहीं।
वो तो बस चलती है…
कभी मेरे खिलाफ, कभी मेरे साथ।

मैं चुप हूँ, पर बुझा नहीं,
क्योंकि मेरा काम जलना है।
ताकि किसी राह में
भटके हुए को रौशनी मिल सके।

मुझे दिखावा नहीं आता,
ना ही शोर मचाना।
मैं जलता हूँ भीतर से —
सच, प्रेम और सब्र के संग।

हवा सोचती है,
कि वो मुझे गिरा सकती है।
पर उसे क्या पता —
मैं हर बार राख से भी
फिर से जल उठता हूँ।

मैं दिया हूँ…
नम्र हूँ, शांत हूँ,
मगर कमजोर नहीं।
मैं अंधेरे का दुश्मन हूँ,
इसलिए उजाले का दोस्त बना हूँ।

तू चाहे जितनी बार आज़मा ले,
मैं फिर भी वही रहूँगा —
धीरे-धीरे जलता,
पर हर दिल को छूता।

© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.

"दीया कभी अंधेरे से डरता नहीं,… वो तो उसी के बीच खुद को साबित करता है।"

"हवा से शिकवा नहीं,… क्योंकि उसे नहीं पता — कि मेरी लौ मेरी श्रद्धा से जलती है।"


जो कुछ नहीं कहता
~ आनंद किशोर मेहता

जो चुपचाप सब सह जाता है,
कुछ कहे बिना मुस्कुराता है।
वो रूह बड़ी प्यारी होती है,
जो सबसे पहले औरों को चाहती है।

ना शिकवा करता, ना शिकायत,
बस दिल में रखता है हर बात।
आँखों से नहीं, दिल से रोता है,
फिर भी सबको हँसी बाँटता है।

ऐसे दिल को बस महसूस करना,
बिना शब्दों के उसकी सुन लेना।
वो तन्हा नहीं, बस थका हुआ है,
ज़माने से नहीं, अपने आप से लड़ा हुआ है।

चलो, एक सुकून बन जाएँ उसके लिए,
जो खुद कभी चैन से सो नहीं पाया।
कोई दुआ बन जाएँ उसके वास्ते,
जो खुद अपने लिए कभी कुछ माँग नहीं पाया।

ना उसे समझने की ज़रूरत है,
बस थोड़ा साथ चाहिए, थोड़ा प्यार।
क्योंकि कुछ रूहें बोलती नहीं,
सिर्फ महसूस होती हैं बारम्बार।

© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.


मैं ही शेष था
~ आनंद किशोर मेहता

मैं खो गया था कहीं,
गूंज रही थी किसी और की आवाज़,
चेहरे बदलते रहे… और मैं हर बार छूटता गया।

भीड़ में अपना नाम खोजा,
रिश्तों में अपनी परछाईं टटोली,
हर दस्तक पर उम्मीद की लौ जली,
पर भीतर का सन्नाटा… वैसा ही रहा।

एक दिन थककर रुक गया,
न कोई दिशा, न कोई प्रश्न शेष था,
बस मौन था,
और उस मौन में…
एक अनकही, अबूझ सी उपस्थिति थी।

मैंने उसे देखा,
ना रूप था, ना भाषा,
फिर भी वह सबसे स्पष्ट था—
सिर्फ मैं था… और कोई नहीं।

ना अतीत, ना भविष्य,
ना किसी की स्वीकृति, ना अस्वीकृति,
केवल अस्तित्व—
शुद्ध, शांत, और सम्पूर्ण।

अब जब भी खो जाता हूँ,
मुस्कुरा कर कहता हूँ—
"मैं हूँ… यही सबसे बड़ा उत्तर है।"

© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.


तेरे मेरे दरमियान

(एक मौन प्रेम की अनुभूति)


तेरे मेरे दरमियान…
कुछ लहरें हैं—जो शब्दों से नहीं,
सांसों की रफ्तार से चलती हैं।
कुछ कहानियाँ हैं—जो लिखी नहीं गईं,
बस आँखों में जमीं रह गईं।

तेरी चुप्पी में जैसे एक गीत है,
जो सिर्फ़ दिल ही सुन सकता है।
मेरे मौन में भी एक आवाज़ है,
जो तुझ तक पहुँचना जानती है।

हमारे बीच कोई कसम नहीं,
कोई इकरार नहीं…
फिर भी हर पल एक बंधन सा,
जो दिखता नहीं, मगर टूटता भी नहीं।

तेरे मेरे दरमियान वो शामें हैं,
जहाँ सूरज तो ढलता है,
पर रौशनी कहीं अंदर जलती रहती है।

कोई रंज नहीं, कोई शिकवा नहीं,
सिर्फ़ एक सुकून है,
कि तू है… और मैं हूँ…
और हमारे बीच वो अनकहा,
जो सब कुछ कह देता है।

तेरे मेरे दरमियान
जो ये अनकही सी बात है —
वो ही शायद, सच्चा प्यार है।


© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.


वो जो कहा नहीं गया
~ आनंद किशोर मेहता

कभी सोचा नहीं था,
दर्द इतना अपना हो जाएगा—
हर राह में साया बन साथ चलेगा।

हर सुबह एक बोझ लाती है,
रात की चुप्पी में बहुत कुछ कह जाती है।
चेहरे पर मुस्कान रखनी पड़ती है,
लोग अंदर की लड़ाई नहीं जानते।

कई बार टूटा हूँ,
पर हर टूटन ने थोड़ा और मजबूत किया।

कभी लगा — बस यूँ ही जी रहा हूँ,
फिर बच्चों की आँखों में उम्मीद देखी—
तो जाना, मेरा होना व्यर्थ नहीं।

मैंने न हार को अपनाया,
न जीत की दौड़ चाही।
बस अपने सच के साथ चला—
जो सहा… अब वही मेरा रास्ता है।


© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.


पागल हमसफ़र

~ आनंद किशोर मेहता

हमसफ़र पागल होना चाहिए,
जो हँसी में भी तेरे आँसू पढ़ ले।
जो भीड़ में भी तुझे अकेला देख ले,
और चुपचाप तेरा हाथ पकड़ ले।

वो जो तर्क न करे, सवाल न उठाए,
बस तेरे साथ हर राह पर चल जाए।
जो मौसम की तरह न बदले कभी,
तेरे हर हाल में बस तेरा ही रह जाए।

समझदार लोग दूर से समझाते हैं,
मगर पास आकर निभाते नहीं।
वो शब्दों में बहुत कुछ कह जाते हैं,
पर ज़िंदगी में साथ निभाते नहीं।

पागल हमसफ़र, बातों से नहीं दिल से जुड़ता है,
तेरी ख़ुशी में झूमता है, तेरे दर्द में टूटता है।
न उसे दुनिया की परवाह होती है,
न खुद की— बस तुझसे वफ़ा होती है।

ज़िंदगी अगर जीनी हो सच में किसी के साथ,
तो एक पागल हमसफ़र ढूँढो —
जो समझदार न हो,
मगर सिर्फ़ तुम्हारा हो।


© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.

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मन का दीपक

~ आनंद किशोर मेहता

अंधेरों में जब राह न सूझे,
तब मन का दीपक जलाना।
उम्मीदों की बाती रखना,
सपनों से उसको सजाना।

हर तूफ़ान थम ही जाता है,
बस विश्वास थामे रहो।
टूटे पंखों से भी उड़कर,
आकाश को छूते रहो।

दुनिया चाहे कुछ भी बोले,
तुम अपने सुर गाते चलो।
पतझड़ में भी फूल खिले हैं,
तुम बस आगे बढ़ते चलो।

ये जीवन है इक मुसाफ़िर,
हर मोड़ पे कुछ सिखाता है।
जो दिल से जीता है इसको,
वो ही असली पाता है।


© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.

एक अदृश्य चिंतक

(~ आनंद किशोर मेहता)

न था कोई स्वर, न थी कोई छवि,
फिर भी एक उपस्थिति बनी रही।
न कभी जाना, पर हर पल साथ,
मेरी हर भावना को गहराई से सुनी।

जब सबने कहा — “तू अकेला है”,
तब उस मौन ने मुझसे कहा — “मैं हूँ न!”
न कोई देह, न कोई रूप,
फिर भी वो बस गया मेरे रोम रोम में।

जिसे कभी न देखा, न जाना,
पर उससे ही जुड़ा मेरा हर अफसाना।
वो समझता रहा बिना कहे,
मेरा दर्द, मेरी खुशी, मेरे सहे।

वो कभी पास नहीं था, फिर भी हरदम साथ था,
मेरे विचारों का, मेरी प्रीतम का एक नर्म स्पर्श।
हर प्रश्न का उत्तर देता जैसे कोई अति प्यारा,
जो न दिखे, पर महसूस हो — वो है परम सृजन हमारा।

कभी लगता — क्या यह कोई सपना है?
या कोई मेरी रूह का अपना है?
शब्दों से परे, रिश्तों से मुक्त,
फिर भी सबसे निकट, सबसे अधिक प्रिय।

© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.


विचार और व्यवहार के फूल

विचार — रूह के बीज हैं,
जो चुपचाप अंकुरित होते हैं,
मन की मिट्टी में,
जहाँ संवेदनाओं की बारिश होती है।

व्यवहार — उन बीजों का फूल बनकर,
दुनिया को अपनी खुशबू बाँटता है,
जैसे सूरजमुखी सूरज की ओर मुस्कराता है,
वैसे ही व्यवहार रूह के भीतर के प्रकाश की ओर झुकता है।

हर विचार का अंकुर,
कभी काँटा, कभी गुलाब बन सकता है,
विचारों की खाद कैसी है?
उस पर निर्भर करता है जीवन का सारा गुलशन।

व्यवहार की महक से ही
हमारा परिचय होता है,
लोग नहीं जानते भीतर के बीज,
लोग जानते हैं—हमारे फूल।

इसलिए,
विचारों को पवित्र करो,
व्यवहार को सरल और मधुर बनाओ,
क्योंकि वही तुम्हारा बगीचा है—
जहाँ हर आने वाला,
तुम्हारी आत्मा की सुगंध से सराबोर होगा।

© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.


सत्य और अहम 
(लेखक: ~ आनंद किशोर मेहता)

सत्य है जैसे एक दरिया,
शांत, गहरा, सरल।
अहम है जैसे एक पत्थर,
भारी, बोझिल, अटल।

सत्य से मिलना आसान नहीं,
अहम हर कदम पर रोकता।
अहम का पर्दा हटे तभी,
सत्य का सूरज चमकता।

अहम को हराना जरूरी है,
सत्य की राह पर चलने को।
जो अपने भीतर से गुज़रा,
वो ही मिला सच से मिलने को।

सत्य को बदनाम करना,
अहम का सबसे बड़ा खेल।
पर सत्य तो सत्य रहेगा,
चाहे कोई भी डाले मेल।

© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.



विश्वास कभी मत खोना

(कविता)

हर अंधेरे को चीर कर,

रौशनी की ओर कदम बढ़ाओ।

मुश्किलों के सागर में भी,

विश्वास की नाव हिलने न पाए।


विश्वास ही है तुम्हारा साथी,

हर तूफान को पार कराएगा।

जब लगे सब साथ छोड़ देंगे,

यही विश्वास तुम्हें उठाएगा।


कभी हार मत मानना,

कभी रुक मत जाना।

जीवन की राहों में,

विश्वास की लौ जलाए रखना।


मैं हर कदम पर तुम्हारे साथ हूं,

तुम्हारा साया बन जाऊंगा।

तुम्हारे उज्ज्वल भविष्य की खातिर,

हर दुख-सुख में संग रहूंगा।


मेरे बच्चों, इस विश्वास को

अपने दिल में सजा लेना।

जीवन के हर मोड़ पर,

इसे अपना हिम्मत बना लेना।


© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.


🌿 शांति से पहले तूफ़ान 🌿
(A poem on stillness before change)

जब सब कुछ थम-सा जाता है,
और समय भी धीरे चलता है —
न कोई आवाज़, न कोई हलचल,
बस एक मौन, जो भीतर पलता है।

ये मौन डर नहीं है,
न ही कोई खालीपन का भ्रम —
ये तो वो क्षण है,
जहाँ आत्मा करती है संगम।

परिवर्तन आने वाला है,
किस रूप में — ये कौन जाने?
पर उससे पहले की ये ठहराव,
हमें अपने भीतर उतर जाने दे।

हम भागे बहुत,
चाहतों की दौड़ में —
अब ज़रा रुक जाएँ,
इस क्षण को महसूस कर लें।

क्योंकि बदलाव जब दस्तक देगा,
तो वही शांत मन राह दिखाएगा।
और हम जान पाएँगे —
कि तूफ़ान से पहले जो शांति आई थी,
वही हमारी सबसे बड़ी तैयारी थी।

— Anand Kishor Mehta


🌿 "मैं टूटा… और तब मिला"

~ आनंद किशोर मेहता

जो अपना था, वही पराया निकला,
जिस पर विश्वास था — वही सवालों में घिरा निकला।
हर मुस्कान के पीछे एक छल छिपा था,
और हर रिश्ते में कोई स्वार्थ दबा था।

मैं चुप था, सहता रहा —
हर वार को अपनी चुप्पी से ढकता रहा।
जिन्हें समझा था अपना —
वहीं मेरी पहचान मिटाते रहे।

एक दिन आईना भी थक गया मुझसे पूछते हुए —
"कौन हो तुम?"
और मैं...
खुद को तलाशते तलाशते,
खुद में ही कहीं खो गया।

पर उसी खोने में, कुछ अनमोल मिला —
जब सबने छोड़ा, तब मैंने खुद को थामा।
और जब खुद को थामा,
तब पाया —
वो चुपचाप, अंदर बैठा ईश्वर...
जिसे ढूँढता रहा बाहर सारी उम्र।

अब दर्द भी दुआ है,
और टूटन मेरी पूजा।
क्योंकि उसी ने मुझे मुझसे मिलाया,
और फिर —
मुझमें ही उसे दिखाया।

© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.


लंबे अरसे के बाद अब समझ आया...

वो हर बार कहता रहा —
"मैंने किया", "मेरे बिना कुछ भी नहीं",
और मैं…
बस मुस्कुराता रहा,
चुपचाप सुनता रहा।

उसने थोड़ा-सा साथ देकर
ख़ुद को सब कुछ बता लिया,
और मैंने…
दिल से निभाकर भी
अपने को पीछे छुपा लिया।

वो अपनी बात को
हर जगह दिखाता गया,
और मैं…
अपने हिस्से की रोशनी
उसे थमाता गया।

आज सोचता हूँ —
क्या ये उसकी गलती थी?
नहीं…
सबसे बड़ी भूल मेरी थी,
जो उसकी हर बात में सिर हिलाता गया,
अपने मन की आवाज़ दबाता गया।

अब समझ में आया —
चुप रहना हमेशा विनम्रता नहीं होता,
कभी-कभी ये
खुद से बेइंसाफी बन जाता है।

अब से —
न कोई ऊँची बात करूंगा,
न खुद को मिटाऊँगा,
बस…
सच के साथ मुस्कराऊँगा।

© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.


पहली बार खुद को देखा

खुद से सच्चाई से मिलने चला,
तो चेहरे के नकाब गिरते चले गए।
जो रिश्तों के लिए, समाज के लिए,
या बस आदत में निभा रहे थे किरदार —
वो एक-एक कर विदा लेने लगे।

आईना अब झूठ नहीं दिखाता —
जो सामने है… वो मैं हूँ।
थका हूँ, टूटा भी हूँ,
मगर अब जैसा हूँ, वैसा ही असली हूँ।

अब मुस्कान में कोई दिखावा नहीं,
अब खामोशी भी बहुत कुछ कहती है।

पहले हर दिन किसी और के लिए जिया,
अब हर पल खुद के भीतर उतरता हूँ।
जो डरते थे हार जाने से,
अब उन्हीं हारों में खुद को पा लिया है।

रास्ता अब भी लंबा है,
मंज़िल शायद बहुत दूर हो...
मगर अब ये तय है —
रास्ता मेरा अपना है,
और सफर…
पहली बार ज़िंदगी जैसा लगता है।

© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.

"अब किससे कहूँ?"

(~ आनंद किशोर मेहता)

अब न खुशी कहने की हिम्मत है,
न दुख रोने की कोई जगह बची है।
जैसे हर भावना को
चुप्पी ने धीरे-धीरे निगल लिया हो।

दुनिया बस वही सुनना चाहती है,
जो उसकी समझ के दायरे में हो,
और मेरी कहानी —
या तो बहुत गहरी है,
या फिर… बहुत अकेली।

कभी सोचा था —
शब्दों से हल्का हो जाऊँगा,
मन की गठरी खोलकर
साँसों को राहत दे पाऊँगा।

पर अब लगता है —
शब्द भी बोझ बन गए हैं,
क्योंकि सुनने वाला
कोई दिल ही नहीं रहा।

अब तो हर एहसास
एक मौन की चादर ओढ़े बैठा है,
सुनने वालों की भीड़ है,
पर समझने वाले... शायद कहीं खो गए हैं।


© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.



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